Apne Jivan Ke Malik Aap Khud Hai | आप है अपने जीवन के मालिक - True Gyan

Apne Jivan Ke Malik Aap Khud Hai | आप है अपने जीवन के मालिक



ज्यादातर लोग अपनी हार का दोष दूसरों पर फोड़ना पसंद करते है। क्योकिं दूसरों को दोष देना आसान है और अपने हर अच्छे - बुरे फैसले की जिम्मेदारी लेना कठिन। सवाल है कि जब सफलता अपनी लगती है तो हार परायी क्यों !


दुनिया में  दो प्रकार के लोग होते है। एक वो, जो अपने जीवन में होने वाली सब घटनाओं की जिम्मेदारी स्वयं लेते है और हमेशा इस प्रयास में रहते है कि अपने जीवन के तमाम उतार - चढ़ावों से वो क्या नया सिख सकते हैं। 


दूसरे वो, जो अपने जीवन में कुछ भी बुरा होने पर फ़ौरन असहज हो जाते है और उसका दोष दूसरों पर फोड़ने लगते है। उन्हें हर वक्त ईश्वर से यही शिकायत रहती है कि बुरा हमेशा उनके साथ ही क्यों होता है। 


यदि साधारण शब्दों में इन दो तरह के व्यक्तियों को समझा जाये, तो पहले होते है, अपने जीवन के मालिक। ऐसे लोगों का विश्वास होता है कि जीवन उनके लिए बना है, जिसे वह होने अनुसार ढाल सकते है और जीने लायक बना सकते है। 


वहीं, प्रवित्ति वाले लोग पीड़ित की श्रेणी में आते है, जिन्हें लगता है कि जीवन में उनके साथ न्याय नहीं हुआ है। और इसी वजह से वह हमेशा दुखी और त्रस्त रहते है। प्रकृति ने प्रत्येक मनुष्य को यह क्षमता प्रदान की है कि वह इस बात का चुनाव कर सके कि उसे अपने जीवन का मालिक बनाना है या एक पीड़ित की तरह रहना है। 


वैसे मानव प्रवृति कुछ इस प्रकार का है कि हम हालात और समय के अनुसार स्वयं को अपने जीवन के मालिक या जीवन से पीड़ित व्यक्ति की श्रेणी में ढाल लेते है। 


Dusaro Ki Bhi Sune :

कभी कभी ऐसा होता है कि हम सिर्फ अपने ही दिमाग की सुनते है और हमारा मन कहता है, उसी को सच मानने लगते है। ऐसे में किसी और का कहा हुआ हम समझ ही नहीं पाते, क्योकिं हमारी सोच हमारी मस्तिष्क पर इतनी हावी हो जाती है कि किसी अन्य का कुछ बोला हुआ समझ में ही नहीं आता। 


ऐसे में जब हमे महसूस होता है कि हमारी बात पर ध्यान नहीं दिया जा रहा, तो हमें गुस्सा आने लगता है और तब हम सामने वाले को सबक सिखाने की सोचने लगते है। ऐसे में हम अपने ही बात पर मगन रहते है जबकि हमे दूसरों की बातों को भी सुनना चाहिए। 


(Busy)Dukh ko Sajha Kare:

कभी - कभी ऐसा भी होता है कि हम किसी के प्रति कड़वाहट को अपने भीतर ही दबाकर सामान्य रहने की कोशिश करने लगते है। पर, ऐसे में बात बनने की बजाय और बिगड़ती चली जाती है, क्योकि हमारे अंदर जम रही नकारात्मक को निकासी का मौका ही नहीं मिलता। 


इसकी बजाय बेहतर तरीका यह है कि यदि हम किसी बात से सहमत ना हो तो उसे संयम के दायरे में रहकर व्यक्त कर दे। उदहारण के लिए, मान लीजिये किसी दिन दफ्तर में अच्छा दिन न बीतने पर जब आप घर को आते है तो घर पर भी आपको सुखद और खुशनुमा माहौल नहीं मिलता। 


बच्चों का शोर - शराबा और पत्नी के शिकायतों का पुलिंदा मानों आपका ही इंतजार कर रहा था। ऐसे में आप अपनी सारी गुस्सा उनपर निकल देंगे तो बात और बिगड़ सकती है, क्योकि उन्हें नहीं पता कि दफ्तर में आपका दिन कैसा बिता। 


इसकी जगह आप घर आते ही यदि आराम से पत्नी को बता दे कि दफ्तर में आपका दिन बहुत तनावपूर्ण रहा, इसलिए कुछ देर आप शांति में रहना चाहते है। ऐसे में वह न केवल आपकी बात समझेगी, बल्कि आपके मूड के अनुरूप घर का माहौल बनाने का भी प्रयास करेगी। 


हो सकता है कि ऐसा करने से आपके दफ्तर का तनाव तो दूर हो ही जाये, साथ जी मूड बेहतर करने में भी मदद मिले। कहने का मतलब यह है कि जो आप चाहते है या जैसा आप महसूस करते है, उसको लेकर स्पष्टता रखनी चाहिए। 


अपनी गलतियों या अपनी झल्लाहट किसी और पर निकली जाये, इससे बेहतर है कि उससे निपटने के तरीके खुद ही ढूंढे जाए, ताकि आपकी वजह से सामने वाले को कोई परेशानी न हो। 


हर बार सहमति जरुरी नहीं:

क्रोध में लड़ाई - झगड़ों के दौरान हम ज्यादा से ज्यादा लोगों को अपने पक्ष में जुटाने की कोशिश करते है। खासतौर पर, यह अपेक्षा हम अपने प्रियजनों से करते है। पर, हमारे प्रियजनों की सोच किसी मुद्दे पर हमसे अलग हो सकती है। 


उस वक्त विवेकशील व्यक्ति समझदारी से काम लेता है और बात को निपटाने की कोशिश करता है। वहीँ, क्रोधित व्यक्ति अपनों को ही सबक सिखाने के बारे में सोचने लगता है, क्योकि वे उसकी बात से सहमत नहीं होते। जीवन से पीड़ित व्यक्तियों की यही निसानी है। 


अधिकतर लोग ऐसा ही करते है, क्योकिं अपने मन की भड़ास निकालने का यह एक अपेक्षाकृत आसान रास्ता है। पर, जब आप अपने जीवन और भावों की डोर अपने हाँथ में साध लेते है, तो क्रोध, द्वेष और ईर्ष्या के भाव खुद - ब  - खुद ख़त्म होने लगते है। उस वक्त आप समझ जाते हैं कि सही और गलत क्या है। 


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