ऐसे समझे अपने मन की तरंगों को | apane man ki tarango ko samjhe | apke man me kya hai - True Gyan

ऐसे समझे अपने मन की तरंगों को | apane man ki tarango ko samjhe | apke man me kya hai

किसी को दुःख में देख कर खुद उसकी पीड़ा महसूस करना या किसी की ख़ुशी में खुद भी दिल से शरीक होना। पर आपने कभी सोचा है कि ऐसा क्यों होता है ? दरअसल हम बिना शब्दों का इस्तेमाल किये, अपने मस्तिष्क की तरंगों के कारण इस कदर जुड़ जाते है कि एक समय पर ठीक ऐसा ही सोचने लगते है। 


हममें से अधिकतर लोगों ने कभी न कभी यह महसूस किया होगा कि जो बात आपके दिमाग में है, वो उसी वक्त किसी और ने बोल दिया। या फिर एक ही समय में दो लोग ठीक एक जैसा सोच रहे हों। आम बोलचाल की भाषा में कहे तो इसे कहते है 'आपने तो मुँह की बात छीन ली।' 


वैसे ऐसा सिर्फ कुछ विचारों को लेकर नहीं होता, बल्कि हर भाव को लेकर आप सामने वाले की तरह महसूस कर सकते है। देखा जाये तो यह एक रहस्य है, जिसके तह तक जाना एक साधारण इंसान के बस में नहीं है। 


पर, फिर भी इसे ऐसे समझा जा सकता है कि हमारे मस्तिष्क की तरंगें जब सामने वाले व्यक्ति के मस्तिष्क की तरंगों से मिलती है तो बिना किसी बातचीत के वो आपस में संवाद करती है। इसके परिणामस्वरूप दो व्यक्ति एक ही समय में एक जैसा सोचने लगते है। 


मन से मन के तार मिलना 

जब किसी व्यक्ति के जीवन में कोई नया शख्स प्रवेश करता है, तो धीरे - धीरे उनके विचारों का आदान - प्रदान होने लगता है। जिन लोगों को हम ज्यादा पसंद करते है या जिनके साथ ज्यादा समय बिताते है, जाने - अनजाने उनकी आदतें और व्यवहार हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बनने लगते है। 


ठीक ऐसे ही तरंगें सामने वाला व्यक्ति भी हमसे ग्रहण करता है। उदाहरण के लिए, जब दी दोस्त एक साथ पैदल चलते हुए कहीं जाते है, तो दोनों एक दूसरे की गति और चाल से अपनी कदमताल मिलाने की कोशिश करते है। 


विभिन्न शोध भी बात को सत्यापित करते है कि अपने जीवनसाथी के साथ एक ही बिस्तरसाझा करना उस जोड़े की दिल की धड़कनों को भी लयबद्ध कर देता है। इसका मतलब यह हुआ कि हमारे मस्तिष्क से निकलने वाली तरंगें हमारे आस - पास के दूसरे इंसानों के दिमाग की तरंगों को न केवल महसूस करती है, बल्कि उन्हें ग्रहण भी करती है। 


बंधन मुक्त है मस्तिष्क 

कहते है की हमारा मन किसी भी प्रकार के बंधनों से आजाद होता है, पर एक सच यह भी है कि दिमाग पर काबू पाना भी असंभव है। दरअसल, हमारा दिमाग उस विशाल कैनवास की तरह है, जिस पर अनगिनत छवियां बनती बिगड़ती रहती है और यह छवियां हमारी मानसिक तरंगें उकेरती है। 


इस लिहाज से यह बहुत कठिन है कि मस्तिष्क को साधारण किसी एक ही दिशा में कार्य करने के लिए निर्देशित किया जा सके। वैसे इस बात का एक अर्थ यह भी निकलता है कि मानसिक तरंगें मिलने के बावजूद किन्ही दो लोगों का दिमाग एक ही दिशा एक ही तरीके से सोचे, ऐसा हर बार संभव नहीं। 


मान लीजिये, आप अपने किसी प्रियजन साथ किसी रोमांचकारी झूले पर बैठे है, तो ऐसा बहुत हद तक संभव है कि जिस रोमांच का अनुभव आपको उस झूले पर हो, उस भाव को डर के रूप में आपका साथी महसूस करे। ऐसा इसलिए क्योकिं समान तरंगें और विचार होने के बावजूद कभी - कभी हमारे एहसास और भाव एक दूसरे से भिन्न होते है। 


हाव - भाव भी महत्वूर्ण 

किसी व्यक्ति से जब हम मिलते है तो सबसे पहले जिस बात पर हमारा ध्यान जाता है, वो उस व्यक्ति के हाव - भाव होते है, क्योकि क्रोध, प्रसन्नता, हैरानी, निराशा या उत्सुकता जैसे सभी प्रकार के भाव सबसे पहले हमारे चहरे पर ही दिखते है। 


हमारा मस्तिष्क तरंगें ग्रहण करने के अलावा, इन भावों को पढ़ना और उन संकेतों को समझना बहुत अच्छे तरीके से जानता है। इसलिए जब हमसे कोई गर्मजोश से मिलता है, तो हमारा दिमाग फ़ौरन उस व्यक्ति के दिमाग की तरंगें खोजने लगता है, ताकि उसके साथ वह बात कर सके। 


इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति रूखेपन से हमसे मिलता है, तो हमारा मस्तिष्क भी आक्रमक मुद्रा में आ जाता है और हम जाने - अनजाने अपने आप को उस व्यक्ति की तरंगों से सुरक्षित रखने का प्रयास करने लगते है। 


भावों को समझने के जाग्रति है जरुरी 

भावों को पढ़ने में मानव मस्तिष्क से समृद्धि कोई नहीं है, पर ऐसा हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं होता। सामान्य तौर पर, हम सिर्फ उन्ही तरंगों को ग्रहण कर पाते है, जो हमारे बेहद करीब होती है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के आभामंडल के बाहर भी अलग - अलग तरंगों का विशाल जाल है, जिसे समझने और पढ़ने के लिए अपनी प्रसुप्त इन्द्रियों को जाग्रत करना जरुरी है। 


इसे दर्शन के नाम से जाना जाता है। जब आप मन को बंधन मुक्त कर देते है और पुरे ब्रम्हांड को एकरूप होकर देखने लगते है तो जीवन का दर्शन समझना सरल हो जाता है। हम दुःख, भय, क्रोध, हर्ष, प्रसन्नता के अलावा भी कई अन्य भावों को आसानी से समझने लगते है। 


जो व्यक्ति अपनी प्रसुप्त इन्द्रियों को जाग्रत अवस्था में लाने में कामयाब हो जाता है, वह जीवन के सार को आसानी से समझ लेता है। 


स्वयं भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि कोई भी मनुस्य अपने अवचेतन मन की थाह तब तक नहीं पा सकता, जब तक कि वह अपने भावों पर काबू न पा ले। क्योकि, हमारा मस्तिष्क और ह्रदय जो कुछ महसूस करते है, ब्रम्हांड में उससे कही ज्यादा भाव है।